शुक्रवार, 30 मार्च 2012

विकास और पर्यावरण की बातें...... पहला भाग...




दुनिया ने विकास की गति के जिस रफ्तार को पकड़ा है उस रफ्तार से पीछे आना संभव नहीं है।इसलिए 

पर्यावरण और विकास के मौलिक अवधारणा का अंतर्द्वन्द्ध अब स्पष्ट रूप से

सामने है। किसी ने कहा है कि विकास का हर सोपान बर्बरता के नए आयाम को पैदा करता

 है। विकास की यह समझ विकास के मायनों को ही उलट देती है और उसके प्रति

नकारात्मक भाव पैदा करती है। यह गति और समय के नियम के भी खिलाफ है। विकास

की अवधारणा एक सापेक्षिक अवधारणा है। मानव जाति के जीवन स्तर में गुणात्मक

 परिवर्तन ही सही मायने में विकास है। 



दरअसल
, मानव जाति पर्यावरण के जैवमंडल का अटूट हिस्सा है। इन दोनों 


के बीच अंतर्संबंध है, जो एक दूसरे को गहरे तक प्रभावित करने वाला है। 

मनुष्य अपने उत्पत्ति के साथ ही प्रकृति पर निर्भर रहा है परंतु प्रकृति के 

ऊपर यह निर्भरता मौजूदा समय में भयावह रूप ले चुकी है। यह निर्भरता 

अब केवल आवश्यकताओं तक सीमित न रह कर अंधाधुंध विकास की उस 

धारा से जुड़ गई है जो इंसान की अनिवार्य जरूरतों के साथ-साथ व्यवस्था 

जनित आवश्यकताओं से जुड़ी हुई है। विकास की जो धारा बाजारवादी प्रवृत्ति 

की शिकार  और पोषक है वह उत्पाद को लेकर कृत्रिम उपभोक्तावाद पैदा करने 

वाली है। विकास की इस धारा में उत्पादन इंसान की जरूरतों के अलावा 

बाजार के लिए भी केन्द्रीकृत हो चुका है। मांग और आपूर्ति के बाजारवादी 

सिद्धांत ने अंधाधुंध उत्पादन को प्रोत्साहित किया है। उर्जा संबंधी 

आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्राकृतिक संसाधनों का दोहन जारी है। 


वर्तमान में संम्पूर्ण उद्योग धंधों का विस्तार प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित 

र्इंधनों पर टिका है। विकास के इस मॉडल के कारण दुनिया के सामने ग्लोबल 


वार्मिंग की समस्या खड़ी हो गई है। पृथ्वी इतनी गर्म हो गई है जितनी 

पहले कभी नहीं थी। ग्लेशियर और ध्रुवों पर मौजूद बर्फ पिघल रही है। नई 

औद्योगिक परियोजनाओं के लिए जंगलों को काटा जा रहा है। औद्योगीकरण 

की वर्तमान प्रक्रिया के पूर्व भी कृषि योग्य भूमि का क्षेत्रफल बढ़ाने के लिए 

सदियों से वनों को काटा जाता रहा है लेकिन अब यह कटान खतरनाक स्तर 

पर पहुंच गई है। इससे साबित होता है कि इंसान की प्रकृति पर किसी भी 

तरह से निर्भरता उसे नकारात्मक रूप में प्रभावित करने वाली है। 

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