सोमवार, 19 मार्च 2012

बजट पर विशेष.. भाग-5 यथार्थवादी लेखक का विश्लेषण......

सरकारें दुर्भाग्य भी ला सकतीं हैं। सियासत अभिशाप भी बन सकती है और बजट संकटों की शुरुआत भी कर सकते हैं। अब से छह माह बाद जब देश में महंगाई की दर दहाई को छू रही होगी, ग्रोथ यानी आर्थिक विकास की दर अपनी एडि़यां रगड़ रही होगी और बजट का संतुलन बिखर चुका होगा, तब हमें यह समझ में आएगा बजट कितने बदकिस्मत होते हैं। उम्मीदें टूटने का गम भूल कर बस यह देखिए कि सरकार कितनी जल्दी इस बजट के बुरे असर कम करने के लिए मोर्चे पर लगती है। यह हाल के वर्षो का पहला बजट होगा, जिससे मुसीबतों के समाधान की नहीं, बल्कि समस्याओं के नए दौर की शुरुआत होती दिख रही है। लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था, थके उपभोक्ता और हताश निवेशक बजट से बेहद तर्कसंगत सुधार (रियायतें नहीं) चाहते थे, तब प्रणब के बजट ने उपभोक्ताओं की कमर और ग्रोथ की टांगें तोड़ दी हैं। सियासत और सरकार दोनों ने मिलकर अब अर्थव्यवस्था को अंधी गली में धकेल दिया है, जहां से निकलने में कम से कम तीन वर्ष लगेंगे।
 
आप जिंदा मक्खी निगल सकते हैं, मगर जिंदा मेढक नहीं। 45,000 करोड़ रुपये के नए अप्रत्यक्ष करों (पिछले एक दशक में सर्वाधिक) के बाद महंगाई नहीं तो और क्या बढे़गा। टैक्स बुरे नहीं हैं, क्योंकि इनसे देश चलता है, मगर जब ग्रोथ डूब रही तो सर पर टैक्स का बोझ रख देना पता नहीं कहां की समझदारी है। समझना मुश्किल है कि वित्त मंत्री इस कदर टैक्स बढ़ाकर आखिर हासिल क्या करना चाहते हैं। अगर वित्त मंत्री घाटे को थामने के लिए इतने टैक्स लगा रहे थे तो फिर घाटे के अनुमान को पांच फीसदी से नीचे होना चाहिए था। मगर वर्ष 2012-13 का राजकोषीय घाटा 5.1 फीसदी (जीडीपी के अनुपात में) पर है यानी कि राजकोषीय असंतुलन कायम है और बढ़ेगा। अगर महंगाई सरकार की सबसे बड़ी चिंता है तो फिर एक मुश्त टैक्स से बचना चाहिए था। अगर ग्रोथ की जरूरत थी तो मांग के दुश्मनों को रोकना चाहिए था। अब टैक्स व कीमतें बढ़ने के बाद मांग बढ़ने की बात मजाक ही है। बजट में पेट्रो सब्सिडी के मद में करीब 25,000 करोड़ रुपये की कमी की गई है। साफ है संसद का सत्रावकाश होते ही पेट्रो पदार्थ महंगे होंगे। यह बजट अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने की कला सिखाता है। पिछले तीन साल से सता रही महंगाई बस इसी दिसंबर से कुछ कम होना शुरू हुई थी, जो अगले तीन माह में नई ताकत के साथ लौट आएगी। जब अपनी जेब को कटते और सरकार को महंगाई से जूझते देखें, तब यह याद रखिएगा कि यह तोहफा इसी बजट ने दिया था। 

संभावनाओं पर वार कोई खौलते पानी से खेल सकता है, मगर उसमें बर्फ नहीं जमा सकता। अलबत्ता इस बजट के बाद रिजर्व बैंक से ऐसी ही उम्मीद की जाएगी। अपेक्षा होगी कि ब्याज दर घटे, बाजार में रुपया बढे़, कर्ज सस्ते हों और उद्योग जगत निवेश का ईधन डाल कर ग्रोथ का जहाज उडा ले जाए। ..लेकिन इस बजट ने महंगाई के नाखूनों में जहर लगाकर ब्याज दर कम होने की संभावनाएं खत्म कर दी हैं। बजट के बाद रिजर्व बैंक वापस वहीं खड़ा है, जहां वह पिछले साल जुलाई में था। वित्तीय संतुलन का दम भरने वाली सरकार नए वित्त वर्ष में 4,79000 करोड़ रुपये का रिकॉर्ड कर्ज लेगी अर्थात रिजर्व बैंक को अब महंगाई थामने के साथ सरकार के लिए बाजार में पैसा भी रखना है। अर्थात अगर बाजार में पैसा बढ़ा भी, तो वह सरकार के कर्ज कार्यक्रम को मिलेगा। इस बजट से सस्ते कर्ज और बाजार में पूंजी दोनों की उम्मीद खत्म हो गई है। टैक्स की मार और मरी हुई मांग के बाद महंगे ब्याज पर निवेश की हिम्मत कोई सिरफिरा ही दिखाएगा। इस बजट के बाद अगर आपको महंगाई और महंगे होम लोन दोनों की मार खानी पडे़, समझिएगा कि बजट ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है। 

ग्रोथ का शिकार अगर बजट भाषणों से ग्रोथ रीझ जाती तो अमेरिका-यूरोप के वित्त मंत्री जादूगर हो गए होते। ग्रोथ बड़े जतन से संवरती है और नाजों पर पलती है। इस बजट ने बड़ी बेरहमी के साथ तेज विकास दर की बची खुची उम्मीदों का शिकार कर लिया है। मांग और सस्ती पूंजी के बाद नीतियां ग्रोथ का तीसरा कच्चा माल हैं। यह शायद पहला ऐसा बजट होगा है, जिसमें किसी भी क्षेत्र में बेहतरी की उम्मीदों की एक किरण भी नहीं है। खेती बैंकों के कर्ज से चलेगी, जो पहले ही किसानों के गले में फंसा है। बुनियादी ढांचा तब बनेगा, जब विदेशी वाणिज्यिक ऋण (ईसीबी) मिलेंगे। औद्योगिक निवेश कम होना आर्थिक समीक्षा के मुताबिक सबसे बड़ी मुसीबत है, मगर इस बजट को सुनने और रेल बजट का हश्र देखने के बाद कौन सा निवेशक नई इकाई लगाने की बात करेगा। इसमें तो जमीन अधिग्रहण, कानूनों की कमजोरी, विभिन्न सरकारी स्वीकृतियों जैसी उन बुनियादी मुसीबतों पर चिंता तक नहीं दिखी जिन्हें लेकर उद्योग (बकौल आर्थिक सर्वेक्षण) पस्त हो चुके हैं। वित्त मंत्री की सियासी मजबूरियां सबको मालूम थीं, मगर यह किसी को नहीं मालूम था कि सरकार अपने सहयोगियों से इतनी डर जाएगी कि वह सुधारों की बात भी न कर सके। इससे तो संप्रग-एक वाले मनमोहन अच्छे थे जो नाभिकीय संधि पर करो या मरो के लिए तैयार हो गए थे। वित्त मंत्री से किसी क्रांति की अपेक्षा नहीं थी, बस कुछ ऐसे साहसी कदमों की दरकार थी जिससे यह लगे कि देश में सरकार काम कर रही है। यदि अगले कुछ माह में विकास दर तेजी से गिरे, गवर्नेस के शून्य, जल्दी चुनावों की चर्चा हो और सरकार की साख ढहती दिखे तो इसके लिए इस बजट को जरूर बिसूरिएगा। यह चौतरफा ग्रोथ तोड़ बजट है। इस बजट में साहस, सूझ और संकल्प का घाटा सबसे बड़ा है और इसका सबसे ताकतवर असर यह है कि भारत के लिए दस फीसदी की ग्रोथ का लक्ष्य अब बहुत दूर हो गया है। अगले कुछ वर्षो में अब आठ फीसदी तक पहुंचना भी असंभव है। यह बजट हमें महंगाई, महंगा कर्ज, भारी घाटा, कम उत्पादन और घटती ग्रोथ के दुष्चक्र में धकेल रहा है। ऐसे दुष्चक्र खत्म होने में कम से कम दो साल लेते हैं। 2007 के बाद से इस देश को नीतियों या सुधारों के मामले में कुछ भी नया नहीं मिला। संप्रग की पहली सरकार के आखिरी दो साल चुनावों की तैयारी में गए, जबकि पिछले तीन साल नीतियों के शून्य और भ्रष्टाचार में। अगला बजट चुनावी होगा और अगले दो साल कई राज्यों व अंत में बड़े चुनावों के नाम होंगे। 2014 में जब हमें नीतियों के शून्य की इस साढे़ साती से मुक्ति मिलेगी, तब तक देश बहुत कीमती सात साल गंवा चुका होगा। हमें एक घटिया सियासत और कमजोर सरकार से एक आत्मघाती बजट मिला है, जिसकी मार से बच पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें