शुक्रवार, 30 मार्च 2012

बढ़ती गैर-बराबरी को देखने का चश्मा...


योजना आयोग की शहरों में 32 और गांवों में 26 रुपये प्रतिदिन की गरीबी रेखा ने राष्ट्रीय जनमानस को झकझोर कर रख दिया है। इसके खिलाफ पूरे देश में हैरानी, गुस्से और प्रतिवाद के तीखे सुर सामने आए हैं। यह स्वाभाविक भी है। सवाल उठ रहे हैं कि क्या इतनी धनराशि में दो जून का भरपेट भोजन संभव है? खासकर हाल के वर्षो में जिस तरह से खाद्य वस्तुओं और जिंसों के अलावा बुनियादी जरूरत की सभी चीजों और सेवाओं की महंगाई आसमान छू रही है, उसके कारण आम आदमी का जीना दूभर होता जा रहा है। यही कारण है कि कई विश्लेषक इसे गरीबी नहीं, भुखमरी रेखा कह रहे हैं। इस हवाई गरीबी रेखा ने पूरे देश को इसलिए भी चौंकाया है क्योंकि गरीबी निरंतर असह्य होती जा रही है। इसकी वजह यह है कि देश के तेजी से बदलते आर्थिक-सामाजिक परिदृश्य में दिनोंदिन गरीबों का जीना मुहाल होता जा रहा है। पिछले डेढ़-दो दशकों में देश में जिस तरह से अमीरों और गरीबों के बीच खाई तेजी से बढ़ी और चौड़ी हुई है,उसके कारण गरीबी का दंश और गहरा और तीखा हुआ है। यह किसी से छुपा नहीं है कि देश में एक ओर अरबपतियों की संख्या और उनकी दौलत में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है, वहीं दूसरी ओर, गरीबों की हालत बद से बदतर होती जा रही है।
 असल में, पिछले कुछ दशकों खासकर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के बाद के दो दशकों में देश में जिस तरह से आर्थिक गैर-बराबरी और विषमता बढ़ी है, उसके कारण गरीबी अधिक चुभने लगी है। सत्तर और कुछ हद तक अस्सी के दशक के शुरुआती वर्षो तक देश में गरीबी और अमीरी के बीच इतना गहरा और तीखा फर्क नहीं दिखाई देता था, जितना आज दिखने लगा है। इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में पारंपरिक अमीरों के अलावा नई आर्थिक नीतियों का फायदा उठाकर एक नया दौलतिया वर्ग पैदा हुआ है जिसकी अमीरी और उसके खुले प्रदर्शन ने गरीबों और निम्न मध्यम वगरे में गहरी वंचना का अहसास भर दिया है। इसमें कोई शक नहीं है कि नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के कारण अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर में तेजी आई है। वह दो से तीन फीसद के हिंदू वृद्धि दर के दौर से बाहर निकलकर सात से नौ फीसद रफ्तार वाले हाई-वे पर पहुंच गई है। इसके साथ देश में बड़े पैमाने पर सम्पदा और समृद्धि भी पैदा हुई है। लेकिन यह भी एक कड़वी सचाई है कि यह समृद्धि कु छ हाथों में ही सिमटकर रह गई है। इसका समान और न्यायपूर्ण बंटवारा नहीं हुआ है। नतीजा यह हुआ है कि इस दौर में जहां अमीरों और उच्च मध्यवर्ग की संपत्ति और समृद्धि में तेजी से इजाफा हुआ है, वहीं गरीबों तथा हाशिये पर पड़े लोगों की स्थिति और खराब हुई है। सच तो यह है कि पिछले एक दशक में अमीरी अश्लीलता की हद तक और गरीबी अमानवीयता की हद तक पहुंच गई है। इसे देखने के लिए दूर जाने की जरूरत नहीं है। देश के बड़े महानगरों और शहरों के शापिंग मॉल्स में चले जाइए, वहां देश-दुनिया के बड़े ब्रांडों के उपभोक्ता सामानों की मौजूदगी और उनकी चमक-दमक आंखें चौंधियाने के लिए काफी है। आज देश में दुनिया के सबसे बड़े लक्जरी ब्रांड्स और उनके उत्पाद मौजूद हैं और अच्छा कारोबार भी कर रहे हैं। उनके कारण आज लंदन-पेरिस-न्यूयार्क और दिल्ली-मुंबई-बेंगलूरू में कोई खास फर्क नहीं रह गया है। दरअसल, भारत के अमीरों तथा उच्च मध्यवर्ग के उपभोग स्तर और दुनिया के अन्य मुल्कों के अमीरों के उपभोग स्तर में खास फर्क नहीं रह गया है। आज देश में बड़े अंतरराष्ट्रीय ब्रांडों की लाखों- करोड़ों की घड़ियां, कारें, ज्वेलरी, सूट, फोन सहित भांति-भांति के इलेक्ट्रॉनिक साजो-सामान, यहां तक कि खाने-पीने की चीजें भी उपलब्ध हैं। जाहिर है कि इनके उपभोगकर्ताओं की संख्या और उनके उपभोग की भूख दोनों बढ़ी हैं। सबसे बड़ी बात कि यह सब अब दबे-छिपे नहीं बल्कि खुलकर और सबको दिखाकर हो रहा है। इस वास्तविकता के उल्लेख का अर्थ सिर्फ इतना है कि जिस देश में कोई 78 फीसद से अधिक लोग 20 रुपये प्रतिदिन से कम पर गुजर-बसर करने के लिए अभिशप्त हों, वहां अमीरी की यह तड़क-भड़क और उसका खुला प्रदर्शन सामाजिक-आर्थिक अश्लीलता नहीं तो और क्या है? देश में बढ़ती आर्थिक गैर-बराबरी और विषमता का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि सबसे अमीर दस फीसद लोग देश के कुल उपभोग व्यय का 31 फीसद गड़प कर जाते हैं। सबसे अमीर और उच्च मध्यवर्ग के 20 फीसद लोग कु ल उपभोग व्यय का 45 फीसद चट कर जाते हैं। जबकि सबसे गरीब दस फीसद लोगों के हिस्से कुल उपभोग का मात्र 3.6 फीसद हिस्सा आता है। यहां तक कि खुद प्रधानमंत्री को कुछ साल पहले उद्योगपतियों के सम्मेलन में कहना पड़ा था कि इस तरह के दिखावे का उपभोग समाज के लिए अच्छा नहीं है और इससे बचा जाना चाहिए। यह और बात है कि सरकार की आर्थिक नीतियों के कारण ही यह सामाजिक-आर्थिक अश्लीलता सफलता का पैमाना बनती जा रही है। यही नहीं, इस दौर में आजादी के आंदोलन के दौर में बने सादगी, संतोष और मितव्ययता जैसे सामाजिक-राजनीतिक मूल्य लगातार बेमानी होते चले गए हैं। नए मूल्य यह हैं- ग्रीड इज गुड यानी लालच अच्छी बला है, मोक्ष का रास्ता अधिकाधिक उपभोग और कर्ज लेकर घी पीएं। आश्चर्य नहीं कि पिछले डेढ़-दो दशकों में समावेशी विकास के नारों के बीच देश में गैर-बराबरी बेतहाशा बढ़ी है। तथ्य यह है कि अगर आज इस देश में नरेगा के तहत मिलनेवाली न्यूनतम मजदूरी सौ रुपये प्रतिदिन (मासिक तीन हजार रुपये) और कॉरपोरेट क्षेत्र के अधिकांश सीईओ की दस लाख से एक करोड़ रुपये मासिक की तनख्वाह को आधार मानें तो देश में आय के स्तर पर गैर-बराबरी बढ़ते-बढ़ते असह्य स्तर से भी ऊपर पहुंच गई है। भारत सरकार के सबसे आला अधिकारियों यानी सचिवों की मासिक तनख्वाह और नरेगा की मासिक मजदूरी के बीच 500:1 का अनुपात बढ़ती आर्थिक गैर बराबरी का बड़ा उदाहरण है। देश में योजना की शुरु आत में 10:1 के आर्थिक गैर बराबरी अनुपात को कु छ हद तक बर्दाश्त लायक माना गया था, लेकिन आय और उपभोग के स्तर पर मौजूदा गैर-बराबरी को देख लगता है कि यह किसी सतयुग की बात है। गौरतलब यह भी है कि इस दौर में तेज आर्थिक विकास के बावजूद रोजगार के अवसर तो बढ़े नहीं, अलबत्ता उसकी गुणवत्ता में गिरावट ही आई है। देश में अब भी कुल श्रम शक्ति का 92 फीसद हिस्सा असंगठित क्षेत्र में काम करने के लिए बाध्य है। यही नहीं, इस दौर में सीईओ से लेकर सरकारी नौकरशाहों की तनख्वाहों में भारी इजाफा हुआ है लेकिन न्यूनतम मजदूरी गरीबी रेखा की तरह अतीत में अटकी हुई है। निजी क्षेत्र का तेजी से विस्तार हुआ है लेकिन उसमें रोजगार के संविदाकरण और अस्थाईकरण के अलावा श्रम कानूनों का उल्लंघन बढ़ा है। दूसरी ओर कृषि क्षेत्र पर आबादी के 60प्रतिशत की निर्भरता के बावजूद कु ल जीडीपी में उसका हिस्सा मात्र 14 फीसद रह गया है। मतलब 60फीसद आबादी को देश की कुल आय में सिर्फ 14 फीसद हिस्सा मिल रहा है। कहने की जरूरत नहीं कि इस सबके कारण गैर-बराबरी बढ़ती जा रही है और बर्दाश्त से बाहर होती जा रही है। योजना आयोग की गरीबी (गल्प) रेखा इसीलिए और बेमानी लगने लगी है।
अवसर जो सिर्फ बड़े हो कर ही नहीं, बचपन से मिलने चाहिए। खान-पान और शिक्षा से प्रारंभ हाने वाले इन अवसरों की एक जीवन स्तर तक लंबी फेहरिस्त हो सकती है। आरक्षण दे देने भर से अगर समानता आ जाती तो आज तक यह गैरबराबरी ही खत्म हो चुकी होती। आजादी के इतने बरस बाद भी हमारी राजनैतिक पार्टियों को कमजोर तबके के उत्थान का एक ही उपाय नजर आता है, सिर्फ आरक्षण देने पर विचार करती नजर आती हैं। और इसकी जरूरत भी उसे खासकर यूपी चुनावों से ठीक पहले क्यों महसूस होती है? आरक्षण देना ही था तो इसकी याद उसे पहले क्यों नहीं आई? ठीक इसी तरह अन्ना टीम कहती है कि यदि बिल पास न हुआ तो वह पूरे देश में आंदोलन खड़ा करेगी। लेकिन उसकी वजह से जिस तरह से संसद का कामकाज बार-बार प्रभावित होता रहा और अनेक जरूरी बिल रुक गए, वह तो ठीक नहीं हुआ। क्या यहअपनी मांगें मनवाने का लोकतांत्रिक तरीका है? ये गैरलोकतांत्रिक तरीके कहां से आए?
शहरों में हालात इससे थोड़े से बेहतर हैं। वहां तो हर पांच में से एक गरीब है। ये आंकड़े साल 2011 की जनगणना के नतीजों से भी मेल खाते हैं, जो घर-घर जाकर जमा किए गए थे। पिछले दिनों मिंट की एक रिपोर्ट में भी यह साफ तौर पर बताया गया था कि भारत ऊपर की ओर खिसक रहा है, भले ही ऊपर उठने  की जो यह प्रक्रिया है, उसमें बराबरी नहीं है।
इसका अर्थ हुआ कि राष्ट्रीय स्तर पर हम पहले से बेहतर स्थिति में हैं। लेकिन क्या इतना पर्याप्त है? शायद नहीं, खासकर तब, जब आर्थिक विकास दर तेजी से गिरी है। इसलिए भी नहीं कि हाल ही में पेश किए गए बजट में जो जोखिम बताए गए हैं, अगर वाकई हकीकत बन गए, तो वाकई परेशानी और भी बढ़ सकती है।

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