सोमवार, 11 मई 2015

पीकू के बहाने बुजुर्गों की बात

पीकू, एक लड़की ही क्यों थी। वो अपने पिता (भाष्कोर बनर्जी) की ही देखभाल में अपने कैरियर और लाइफ की सैक्रिफइसेस क्यों कर रही थी। कहतोहै ना फिल्में समाज का आइना होती है तो पीकू भी उसी समाज का आईना ही तो है। जिसमें एक ओर एक लड़की अपने पिता के सारे नखरों को अपने जीवन का हकीकत मानते हुए स्विकार करती है। यंग इण्डिया और शाइनिगं इण्डिया के नारों के बीच एक सीनियर सीटिजन पर फिल्म की क्या जरुरत है। दरअसल हम जिस भारत में है वो दुविधाओं के जंजाल में उलझा हुआ है।
पुरुष, लड़के तो करियर के आड़ लेकर अपने जड़ो की परवाह ना करते हुए आगे निकलते जा रहे है। पहले भी निकल रहे थे और आज भी। शायद आगे भी ये सिलसिला जारी रहे। इसमें छुटते है तो अपने माँ बाप। वो संस्कार, वो घर बार जिसे बनाने में माँ-बाप ने अपना सब कुछ लगाया होता है। कायदे से कहे तो हर स्थिति में यही हो रहा है। मेरा अपना मानना है कि भारत में तीन लेयर में माइग्रेशन हो रहा है। गाँव से छोटे शहर और कस्बो में और कस्बे व मझोले शहरो से मेट्रोस में मेट्रोस से दुसरे देशों में। ये कोई न्यूटन का नियम नहीं है, इसलिए छोटे शहरों से सीधे लोग विदेशों को भी जारहे। लब्बोलुआब ये है कि हमारे आज के भविष्य के निर्माता वहीं अपने हाल पर छोड़ दिये जा रहे।
और इनकी संख्या भी भारत में दस करोड़ क्रास कर चुकी है(जनगणना 2011के अनुसार। हम 2026 में 17 करोड़ पार कर जायेगें। ये वो लोग है जिन्हे रिटायर कर दिया जाता है। इनके स्वास्थ्य को हमने बाजार के भरोसे कर रखा है। बाजार जोकि स्वभाव में निर्मम और भाव शून्य हो उसके सहारे उनको छोड़ना कहाँ का न्याय है जिन्हे भावनात्मक सम्बल की सबसे ज्यादा जरुरत हो। और एक जरुरी बात इसमें से एक हिस्सा ऐसा भी है जिसने शाइनिगं इण्डिया को दूर से ही देखा है। जिसके लिए दोजून की रोटी का जुगाड़ अभी भी सपने सच होने जैसा है। जो लालकिले से चन्द कदम दूर माननीय प्रधानमन्त्री के स्वच्छता अभियान में अनचाहे रुप से योगदान देते हुए वो बोतले उठीता है जिसे आज की युवा पीढ़ी चियर्स करके छोड़ देती है। जिनकी पेट की आग गुरुद्वारे के लंगर से बुझती है और जो फुटपाथों पर रात बिताते है या शेल्टरों में।
इस वर्ग की समस्या ये है कि इसकी सेवा के लिए स्किल मैनपावर नहीं है। पेंशन भी जनाखोरी का अभी भी शिकार है। लाख दावों के बावजूद हमारी स्वास्थ्य सेवाये इन्हे नसीब नहीं होती। आज देश में 1200 से ज्यादा ओल्ड एज होम है लेकिन एसके नियामक के लिए कोई संस्था नहीं। अकेले हैदराबाद में 200 से ज्यादा है। कुछ तो तीसरे और चौथे तलों पर बेखौफ से इसलिए चलते है कि अगर कुछ हुआ भी तो सलामी देकर कट लेगें। समाज के सहयोग से 80 से ज्यादा बुजुर्गों के लिए ओल्डएजहोम चलाने वाले से जब मैने सरकार से सहायता लेने की बात की तो उस रिटायर्ड व्युरोक्रेट ने हँसते हुए कहा ना हमें 20 प्रतिशत कमीशन नहीं देना। हमने जब लिया नहीं तो दे क्यों।

अपनी जिम्मेदारी को मदर्स डे और फादर्स डे तक समझने वाली युवा पीढ़ी को इनसे ज्यादा क्या मतलब। इन दो दिनों का महत्व तो गिफ्ट के बाजार ने मिडिया में ऐजेण्डा सेट करके बनाया नहीं तो युवा पीढ़ी खोइ रहती आइपीएल के गैल्मर और अपनी रंगीन दुनिया में। उसे क्या फर्क किसी भोष्कर के काँस्टिपेशन और मोशन की थ्योरी में। वो तो आगे बढ़जाना चाहती है, उस मशीन के शेल की परवाह किये बिना जिसके बिना ये पीढ़ी सुन भी नहीं सकती। खैर ये युवा पीढ़ी जाना कहाँ चाहती है इसको लेकर वो खुद भी कन्फ्युज़ सी है। पुदीना और तुलसी की चाय इसे पसन्द नहीं लेकिन यही चीज़े जब बाजार ब्राडिगं करके 130 में 10 पैकेट ग्रीन टी बैग्स देता है तो हम शौक से चुस्की लेने को तैयार है। इसका ये मतलब नहीं कि बाजार की सारी बाते निरर्थक है और बुजुर्ग व युवाओं के बीच चीन की दिवार। 

बुधवार, 14 जनवरी 2015

मै पिछले कई रातों से कुछ अनसुलझे सवालों को समझने का प्रयास कर रहा हूँ। अपनो से दूर अपनो के सपनो के लिए मेरे जैसे करोड़ो लोग अपना जीवन गुजारते है। बेघर होना, असहाय होना या महसुस करना, ये सब कुछ परिस्थियाँ है।
अपने से समझौता करना (शायद ही इस धरा पर कोई हो जो इन परिस्थियों से ना गुजरता हो)। आखिर कार्य करते जाना। बिना सोचे सारी उर्जा को तात्कालिक लक्ष्य के लिए समर्पित कर देना। फिर भी उसमें सफलता का ना मिलना।
फिर भी निराश ना होना(कम से कम सबके सम्मुख तो मुस्कुराता चेहरा ही दिखता है)। ऐसा नहीं है कि ये सिर्फ मेरे साथ है। मै ऐसे कई लोगों का राज़दार रहा हूँ जो कहते है क्या करें यार सब कुछ तो किया लेकिन तकदीर में जो लिखा है वही होगा ना।
हर हार के बाद फिर उसी ऊर्जा और उत्साह के साथ नये कार्य का आरम्भ करना कि इसे तो जीतना ही है...... .यही जीवन है ( सबसे महत्वपूर्ण कि आपकी सफलता आप और आपकी क्षमता से ज्यादा आपके लक्ष्य से जुड़े अन्य कारकों (लोगों) पर निर्भर करती है।
मसलन सरकारों और प्राइवेट सेक्टर को लें। आमतौर पर इस बात से तो हर कोई सहमत होगा कि प्राइवेट सेक्टर ज्यादा सफल है तुलना में सरकारी के। इसका कारण सरकारी नौकरी में आने के बाद ज्यादातर लोग अपने दिमाग को अनुत्पादित कार्यों में लगाते है। वहीं प्राइवेट या अपना कार्य कर रहे लोग हर पल अपने परफार्मेन्स को लेकर सतर्क रहते है। उसे प्रभावित करने वाले हर कड़ी पर बारीकी से नज़र रखते है चाहे वो किसी कि प्राइवेट लाइफ हो या खज़ाना।

अब आप पिछले सात माह माननीय मोदी जी के कार्यकाल को लें। उनपर तरह तरह के आरोप लग रहे है कि मंत्रियो के काम में हस्तक्षेप कर रहे है। किसी भी मंत्रालय या डिपार्टमेंण्ट में चले जाते है। एक तरह का अविश्वास का संकट है। नहीं  आपकी अन्ध आलोचक दृष्टि यहीं धोखा खा जाती है। दरअसल ये परफार्मेन्स का चक्कर है।
मोदी जी को भी पता है कि केवल उनके 18-20 घण्टे कार्य करने से सारी समस्याये ना सुलझने वाली। सभी को पूरी लगन देनी होगी तब जाकर हम देश को 2019 में विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में खड़ा कर पायेगें। सरकार के साथ जनता को भी अपने अन्दर बदलाव लाना होगा। सब चलता है (पान खाकर पिच्च-पिच्च) से देश नहीं सुधरने वाला। तभी उन्होने अपने स्वच्छता अभियान को इतना हाइप दिया।  अब समय आगया है कि देश के लिए कार्य करें। जी तोड़कर मेहनत के साथ। जो भी कर रहे है बिना हारे। बिना थके चौकन्ने होकर करें.....

गुरुवार, 11 सितंबर 2014

विदेश नीति में सबका साथ है कोरी कल्पना

   विदेश नीति हमेशा यथार्थ के धरातल पर ही व्यवहार परक होती है। एक साथ सबको खुश करने की पिछली सरकारों की विदेश नीति ने भारतीय हितों को पहले ही बहुत नुकसान पहुँचाया है।
मोदी सरकार को ना केवल अपने अतीत के गलतियों को दोहराने से बचना चाहिये बल्कि विदेशी देशों के साथ भी सम्बन्ध वास्तविकता के धरातल पर निर्धारित करना चाहिये। अगर आप चाहे भी तो एक साथ सभी देशों को खुश नहीं कर सकते। कुछ विस्तारवादी है तो कुछ का अपने पड़ोसियो के साथ ऐसी अनबन है कि अगर उनके राष्ट्राध्यक्ष व्यक्तिगत चाहे भी तो जनभावना के कारण दूसरी सरकार से सम्बन्ध सहज नहीं कर सकते।

       सबको खुश करने और वैश्विक नेता बनने की फिराक़ मे नेहरु ने तिब्बत चीन को दे दिया। पंचशील का शंख हम विश्व में बजाते रहे लेकिन शीत युद्ध के दौरान कभी रुस की ओर रहे तो कभी अमेरिका की ओर।कभी दोनों की आलोचना करते हुए गुटनिरपेक्षता के पाले में कुद गये। यहीं कारण रहा कि कहने को तो साथ सभी का बना रहा लेकिन जब बात वैश्विक मंचो पर होती है तो भारत अपने राष्ट्रीय हितों के लिए अकेले या कुछ अल्पविकसित देशों के साथ खड़ा दिखाई पड़ता है। कम से कम गैट एंव डब्लूटीयो के उदाहरण ही काफी हैं। 

आज की वास्तविकता ये है कि भारत का बढ़ता मध्यवर्ग विश्व की बड़ी वहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए सबसे बड़ा बाजार है। अमेरिका सहित यूरोपीय देश लगातार हमारी ओर इसी लिए मित्रता का हाथ बढ़ा रहे है।
हमें इनके नापाक इरादों का अन्दाज़ा इसी बात से करना चाहिये कि तेल के कारण इन्हे लीबिया मे मानवाधिकार का हनन दिखाई पड़ता है लेकिन सोमालिया पर ये आँख मूद लेते है। समकालीन विश्व की ज्यादातर समस्याये अमेरिका और उसके सहयोगी देशों की संसाधन के प्रति ज्यादा लोलुपता के कारण उत्पन्न हुई है। इसको ये समय समय पर विभिन्न नाम देते रहे है। 1980 के पहले जब वैश्विक संचार पर इन्ही विकसित देशों को एकाधिकार था जिसे यूनेस्को द्वारा गठित मैकब्राइड कमीशन ने पुष्टि की तो अमेरिका ने मानने से इनकार कर दिया। साथ ही मानवाधिकार पर अपने दोहरे रवैये पर देशों के साथ सम्बन्ध निर्धारित करने लगा।
                                            भारत की वर्तमान सरकार को भारतीय हितों को सर्वोच्च वरियता देनी चाहिये। अगर कोई भी देश हमारे आन्तरिक मसलों पर हस्तक्षेप करने की इच्छा करेगा तो उसे कड़ा सन्देश दिया जाना चाहिये। हाल ही में ब्रिटिश संसद द्वारा कश्मीर पर चर्चा कराना किसी भी दृष्टि में भारतीय जनमानस को स्विकार्य नही है। साथ ही समये आ गया जब हमें इज़रायल एंव फिलिस्तीन, दक्षिण कोरिया और उत्तर कोरिया, अर्मेनिया और अजरबैजान जैसों में से किसी एक के साथ ही रहना चाहिये। इससे ना केवल विदेश नीति में स्पष्टता आयेगी बल्कि हमारी राष्ट्रीय हितों की भी पूर्ति होगी।

शनिवार, 6 सितंबर 2014

मेरी नज़र में मोदी सरकार  नाम क्यों 



कई दिनों से सरकार द्वारा कियो जा रहे कार्य को समझने और जनता की मोदी सरकार की अपेक्षाओं के मद्दे नज़र मैने अपने ब्लाग का नाम परिवर्तित किया है।
 अवतारवाद के इस देश में जनता ने मोदी जी को सारी समस्याओं से उबारकर सुशासन और विकसित भारत बनाने के लिए सत्ता सौंपी है। इस बात को माननीय प्रधानमंत्री भलीभाँति समझतो हैं। लेकिन पिछले कुछ समय से लगातार घट रही कुछ घटनाओं पर मोदी जी का मौन और सरकार का उचित बयान ना आना जनता को निराश करने वाला है। बात हैदराबाद पर तेलगांना के अनुचित अाधिकारिक प्रयोग पर हो या सिविल सेवा में हिन्दी माध्यम के छात्रों की माँग हो या जैविक कृषि के माध्यम से कुछ कम्पनियों का कृषि में एकाधिकार का मामला। ऐसे तमाम मुद्दो पर इस ब्लाग के माध्यम से मैं स्वतन्त्र प्रतिक्रिया देने का प्रयास करुगाँ।

साथ ही मोदी सरकार के अच्छे कार्यों जैसे सुशासन का प्रयास, जन-धन योजना के माध्यम से वित्तीय

समावेशन का त्वरित प्रयास या वैदेशिक क्षेत्र में भारत के बढ़ते कद को और विस्तृत एंव मजबूत आकार देने की। मर्गेन्थाउ के विचारों को ना जानते हुए नयी विदेश नीति, जिसके केन्द्र में ऱाष्ट्रगौरव और राष्ट्रहित हो को गढ़ने की कोशिश। या शिक्षक दिवस पर देश के बच्चो और देशवासियों से सीधे संवाद करके उनके मन में विश्वास जगाने का प्रयास की सरकार अब देखेगी। कमोबेश सारी बातों में एक बात कामन है वह खूद मोदी।इसलिए मैनें ये लिखना आरम्भ किया है।
.. .. ... . .. आगे जानकारी के लिए नज़र मारते रहियेगा।।।

शनिवार, 29 दिसंबर 2012

किसका नववर्ष कौन सा नया साल

वैसे चारों ओर शोर है। चाइनीज ग्रीटिग्सं कार्ड्स और गिफ्ट से बाजार पटे हैं। पिछले सप्ताह आक्रोशित युवा डीजे की धुन पर ताल दे रहे है। कन्फुज और लोभी मीडिया 2012 को विदा कर रहा है। कोई इसे जागरुकता का वर्ष कह रहा है तो कई इसे लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में दक्षिण पंथ के उदय का साल। कुछ लोग इसे वैश्विक स्तर पर चीन से लेकर रुस, जापान से लेकर इटली तक नेतृत्व परिवर्तन का वर्ष कह रहे है। सबके अपने अपने तर्क और तथ्य हैं।
अगर भारत के दृष्टिकोण से देंखें तो यह वर्ष मिला जुला रहा।एक राष्ट्र के रुप में जहाँ हमने इसरो के एक सौवें मिशन की नयी उपलब्धि हासिल की वहीं भ्रष्टाचार को हल करने में फिसड्डी। हैदराबाद में जैव विविधता की मेजबानी कर विश्व को नये संकल्पो का संदेश तो दिया लेकिन गंगा और यमुना जैसी नदियों के सन्दर्भ मे केवल कागजी बातें ही की गयी।
एक ओर संसद में प्रोन्नति में आरक्षण मामले पर गहमा गहमी रहीं, तो दुसरी ओर तमिलनाडु में कई दलितों के घर जलाये गये। विदर्भ, बुन्देलखण्ड जैसे इलाके अन्नदाताओ के लिए अभी भी कब्रगाह बने हुए है।उत्तराखण्ड में जहाँ बादले फटने से कइयो ने अपनी जानें गवायी। वहीं असम में बाढ़ से हजारों लोगों ने अपना सब कुछ खो दिया।
उत्तर प्रदेश में सत्ता परिवर्तन के साथ इस वर्ष नौ दंगें हुए तो असम में चुनाव के बाद कोकराझार जैसे इलाके साम्प्रदायिकता के चपेट में आये। इनका प्रभाव वेब दुनिया से लेकर सारे भारत पर पड़ा। जम्मुकश्मीर में जहाँ पंचायत अध्यक्षो को सुरक्षा देने में सरकार असफल रही तो मुम्बई में बाल ठाकरे की मृत्यु पर शासन ने बेइन्तहा सुरक्षा इन्तजाम किये।
क्रिकेट मे बाहर से पिटने के बाद हम घर में भी हारे।सचिन का तेइस वर्षीय लम्बा एकदिवसीय कैरियर समाप्त हो गया। तो पोटिंग, लक्ष्मण, द्रविण के टेस्ट सन्यास ने विश्व क्रिकेट के एक और सुनहरे दौर को इतिहास के पन्नो पर अंकित होते देखा। ओलम्पिक 2012 में पदक के साथ हमारी उम्मीदें भी बढीं । लेकिन हाकी ने निराश ही किया है।
साल भर महगाई ने आम आदमी का जीना दुभर किया है। वहीं भारत एक्सयूवी का बढ़ा बाजार बनकर उभरा है।अब प्रशन है कि नेटोक्रेसी के दौर में सरकार से क्या इम्मीद की जाय। लेकिन अन्धेरा छटेगाँ।उजाला होगा। ठंड और भुखमरी से मौतों का सिलसिला भी रुकेगा।इसी इम्मीच के साथ नये वर्ष 2013 का स्वागत करें।  


चारित्रिक दोष के युग में ,पाक साफ पत्रकार

सामाजिक असन्तोष अपने आकार को बढ़ा रहे है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि अपने जिम्मेदारी का वहन कौन कर रहा है। जहाँ बढ़ते नगरीकरण ने सामाजिक तोन बाने को नया रुप दिया है। वही एकल परिवार की बढ़ती संख्या ने पारिवारिक सुरक्षा की भावना को घटाया है।याद रखें हम सभ्यता के संक्रमणकालीन दौर में है।ना तो हम जड़ो से पुरी तरह अलग हो पाये है ना तो पुरी तरह से आधुनिक। यही कारण है कि हमारे यहाँ पिज्जा की डिलवरी तो टाइम पर हो जाती है लेकिन ऐम्बुलेन्स और पुलिस घटाना के बाद ही पहुचते हैं।
अगर आप समस्या देखें तो हर ओर नज़र आयेगी।किसान से लेकर प्रधानमंत्री तक। हमने लोकतन्त्र को अपनाया लेकिन सही तरीके से लागु ना कर पाये। ज्यादातर लोग अपने काम के बजाय दुसरे लोगों के काम को करना ज्यादा पसन्द करते है। हरामखोरी के हम आदी होते जा रहे। प्राइमरी अध्यापक से लेकर प्रोफेसर तक पढ़ने के बजाय नेतागिरी में ज्यादा समय देते है। प्रतिष्ठा और महत्वाकाक्षां अच्छी बात है लेकिन जब ये समाज के हित मे ना हो तो नैतिक रुप से सही नही। यही हाल हमारे विधायिका का है, जिन्हें कानुन बनाने का दायित्व सौपा गया था। वो रोड बनाने और हैण्डपम्प लगवाने में ज्यादा रुचि लेते है। कार्यपालिका का कार्य कानून लागू करवाना था तो वह नेताओं के हाथों की कठकुतली बन कर रह गया है। यही कारण है कि जब सरकारे बदलती है तो वही कानून होने के बावजुद व्यवस्था की दशा और दिशा दोनों बदल जाती है।
न्याय के मन्दिर का कहना ही क्या। तीन करोड़ से ज्यादा मामले न्याय के लिए इन्तजार कर रहे है। आम आदमी अब जाये भी तो कहाँ जाय।बचा भी तो एक मीडियी। बिका हुआ। मालिको के हितो का संरक्षक।टीआरपी की अन्धी दौड़ में भटका। आज मध्यवर्गीय लोगों की स्थिति बीच सड़क पर भागते उस कुत्ते की तरह है जो एक गाड़ी से तो बच जाता है। लेकिन जैसे ही वह इसकी खुशी मना पाता की दुसरी आर की गाड़ी का धक्का ..।और सब खतम।
इन्जिनियर, ठेकेदार, आडिटर, व्यापारी इत्यादि लोग कमीशनबाजी में ऐसे खोगये है कि उन्हे एहसास ही नहीं है। भौतिकता की अन्धी दौड़ जारी है। लोग चमक में ऐसे खोये है कि नैतिकता की खिसकती ज़मीन का अन्दाज़ा ही नहीं है। पत्रकार,डाक्टर, सेना,साहित्यकार इसरो इत्यादि में काम कर रहे लोग हैं, जो शायद अपने काम को कुछ ईमानदारी से कर रहे है।हाँला कि कुछ बदमाश इन पेशे में भी है।आनुपातिक दृष्टि से कम है।  तभी हमारा देश अभी रहने लायक है। आवश्यक है कि समाज मे अपने काम को ईमानदारी से करने की प्रवृत्ति विकसित हो।