गुरुवार, 11 सितंबर 2014

विदेश नीति में सबका साथ है कोरी कल्पना

   विदेश नीति हमेशा यथार्थ के धरातल पर ही व्यवहार परक होती है। एक साथ सबको खुश करने की पिछली सरकारों की विदेश नीति ने भारतीय हितों को पहले ही बहुत नुकसान पहुँचाया है।
मोदी सरकार को ना केवल अपने अतीत के गलतियों को दोहराने से बचना चाहिये बल्कि विदेशी देशों के साथ भी सम्बन्ध वास्तविकता के धरातल पर निर्धारित करना चाहिये। अगर आप चाहे भी तो एक साथ सभी देशों को खुश नहीं कर सकते। कुछ विस्तारवादी है तो कुछ का अपने पड़ोसियो के साथ ऐसी अनबन है कि अगर उनके राष्ट्राध्यक्ष व्यक्तिगत चाहे भी तो जनभावना के कारण दूसरी सरकार से सम्बन्ध सहज नहीं कर सकते।

       सबको खुश करने और वैश्विक नेता बनने की फिराक़ मे नेहरु ने तिब्बत चीन को दे दिया। पंचशील का शंख हम विश्व में बजाते रहे लेकिन शीत युद्ध के दौरान कभी रुस की ओर रहे तो कभी अमेरिका की ओर।कभी दोनों की आलोचना करते हुए गुटनिरपेक्षता के पाले में कुद गये। यहीं कारण रहा कि कहने को तो साथ सभी का बना रहा लेकिन जब बात वैश्विक मंचो पर होती है तो भारत अपने राष्ट्रीय हितों के लिए अकेले या कुछ अल्पविकसित देशों के साथ खड़ा दिखाई पड़ता है। कम से कम गैट एंव डब्लूटीयो के उदाहरण ही काफी हैं। 

आज की वास्तविकता ये है कि भारत का बढ़ता मध्यवर्ग विश्व की बड़ी वहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए सबसे बड़ा बाजार है। अमेरिका सहित यूरोपीय देश लगातार हमारी ओर इसी लिए मित्रता का हाथ बढ़ा रहे है।
हमें इनके नापाक इरादों का अन्दाज़ा इसी बात से करना चाहिये कि तेल के कारण इन्हे लीबिया मे मानवाधिकार का हनन दिखाई पड़ता है लेकिन सोमालिया पर ये आँख मूद लेते है। समकालीन विश्व की ज्यादातर समस्याये अमेरिका और उसके सहयोगी देशों की संसाधन के प्रति ज्यादा लोलुपता के कारण उत्पन्न हुई है। इसको ये समय समय पर विभिन्न नाम देते रहे है। 1980 के पहले जब वैश्विक संचार पर इन्ही विकसित देशों को एकाधिकार था जिसे यूनेस्को द्वारा गठित मैकब्राइड कमीशन ने पुष्टि की तो अमेरिका ने मानने से इनकार कर दिया। साथ ही मानवाधिकार पर अपने दोहरे रवैये पर देशों के साथ सम्बन्ध निर्धारित करने लगा।
                                            भारत की वर्तमान सरकार को भारतीय हितों को सर्वोच्च वरियता देनी चाहिये। अगर कोई भी देश हमारे आन्तरिक मसलों पर हस्तक्षेप करने की इच्छा करेगा तो उसे कड़ा सन्देश दिया जाना चाहिये। हाल ही में ब्रिटिश संसद द्वारा कश्मीर पर चर्चा कराना किसी भी दृष्टि में भारतीय जनमानस को स्विकार्य नही है। साथ ही समये आ गया जब हमें इज़रायल एंव फिलिस्तीन, दक्षिण कोरिया और उत्तर कोरिया, अर्मेनिया और अजरबैजान जैसों में से किसी एक के साथ ही रहना चाहिये। इससे ना केवल विदेश नीति में स्पष्टता आयेगी बल्कि हमारी राष्ट्रीय हितों की भी पूर्ति होगी।

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