शुक्रवार, 30 मार्च 2012

विकास और पर्यावरण की बातें...... दुसरा भाग...


आज विज्ञान और तकनीक के माध्यम से इंसानी जीवन की बेहतरी के बहाने 



विकास का जो ताना-बाना बुना जा रहा है, दुर्भाग्य से उसका सबसे बुरा असर 


मानव सभ्यता की मेरुदंड प्रकृति पर ही पड़ रहा है। सूचना तकनीक के 


मौजूदा दौर में दुनिया ई-कचरे का ढेर बनती जा रही है। जो पर्यावरण को 


लंबे समय तक और गहरे तक प्रदूषित करने वाला है। यह ई-कचरा 


अक्षरणीय प्रदूषक है। लेकिन यह चूनौतियां ऐसी है जो केवल मौजूदा व्यवस्था 


के साथ नहीं जुड़ी है। मसलन क्या बाजार आधारित व्यवस्था खत्म होने से 


पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले ई-कचरे का निस्तारण हो जाएगा या यह 


पैदा ही नहीं होगा? यदि इससे निबटने के लिए हम मोबाइल या अन्य 


इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का इस्तेमाल बंद कर देंगे तो क्या पॉलीथीन या 


प्लास्टिक के अन्य कचरों की एक अन्य पर्यावरणीय समस्या खत्म हो 


जाएगी। पर्यावरण हितैषी कल्पना करते है कि प्लास्टिक का प्रयोग बंद हो 


जाए और फर्नीचर प्लास्टिक के बजाए लकडि़यों का बनाया जाए तो क्या ऐसे 


में वनों पर निर्भरता बढ़ नहीं जाएगी। यहीं पर मानवीय चेतना की भूमिका है 


जो मौजूदा व्यवस्था में भी और बाजार से इतर ढांचे में भी महत्वपूर्ण हो 


जाती है। 
अभी मानवीय चेतना बाजारवाद के प्रभाव मे है और इंसान एक उपभोक्ता और 


ग्राहक की तरह इस्तेमाल हो रहा है। विकास के संदर्भ में आर्थिक विकास 


जितना महत्वपूर्ण नहीं है उतना महत्वपूर्ण है मानव विकास। पृथ्वी पर 


मौजूद संसाधन सीमित है। ऐसे में बढ़ती जनसंख्या और उसके साथ जुड़ी 


उपभोक्ता दर भी एक बड़ी समस्या है। पृथ्वी एक ऐसा पात्र है जिसमें से हम 


निकाल तो सकते हैं लेकिन उसमें कुछ डाल नहीं सकते हैं। यानि उपलब्ध 


प्राकृतिक संसाधन अत्यधिक इस्तेमाल होने से समाप्त होने के कगार पर है। 


विकसित देशों और विकासशील देशों के बीच हो रही बहस ने जनसंख्या और 


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उपभोक्ता दर के बीच विरोधाभास को उजागर किया है। 



विकसित देश बडी जनसंख्या का हवाला देते हुए विकासशील देषों को पर्यावरण के प्रति पहली जिम्मेवारी लेने की बात कर रहे है वही विकासशील 

देश अधिक उपभोक्ता दर का हवाला देते हुए विकसित देशों से ज्यादा 

जिम्मेदारी उठाने की बात कर रहे है। सचाई तो यह है कि यदि दुनिया के 

लिए एक जैसी उपभोक्ता दर की कल्पना की जाती है तो यह पृथ्वी पर 

अत्यधिक दबाव डालने वाला होगा। दुनिया को ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों और 

विज्ञान तथा तकनीक के नवाचार की तरफ अग्रसर होना होगा क्योंकि दुनिया 

विकास की गति से पीछे नहीं हट सकती है। पर्यावरणीय संकट की समस्या 

को सभी  छोटे-बडे़ देशों को समय रहते गंभीरता से लेना होगा और सुरक्षित 

पर्यावरण के मसले को विनाशकारी चुनौती के रूप में ईमानदारी से स्वीकारना 

होगा।...........

                    समाप्त......
         

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