रविवार, 25 दिसंबर 2011

अपने को विकल्प साबित करने की रणनीतिक भूल





 अपने को विकल्प साबित करने की रणनीतिक भूल

  विचारधारा से समझौतों, निजी जीवन में स्खलित होते आदर्श और पैसे की पिपासा ने भाजपा को एक अंतहीन मार्ग पर छोड़ दिया है। सवाल नेतृत्व का और भावी प्रधानमंत्री का भी है। आडवाणी ने रथयात्रा इसी उद्देश्य से आरम्भ किया लेकिन ये कलह को बढ़ाने वाली साबित हुई । भ्रष्टाचार, महंगाई, के मोर्चे पर कठघरे में खड़ी इस सरकार के बाद भाजपा के अलावा और दूसरा है भी नहीं, लेकिन क्या भाजपा लोगों की अपेक्षाओं पर खरी उतर रही है? 
 भाजपा आज भी देश का दूसरा सबसे बड़ा राजनीतिक दल है। 1952 से लेकर आज तक की उसकी राजनीतिक यात्रा में ऐसी बदहवासी कभी नहीं देखी गई। जनसंघ और फिर भाजपा के रूप में उसकी यात्रा ने एक लंबा सफर तय किया है।
भाजपा को केवल वर्तमान चुनौतियों से निपटने योग्य ही नहीं, बल्कि कांग्रेस से अलग, सक्षम और एकजुट नेतृत्व वाली पार्टी दिखनी चाहिए।इसी क्रम में लालकृष्ण आडवाणी की 20 नवंबर तक चलने वाली जनचेतना को लिया जा सकता है। चूंकि यह सरकार के विरुद्ध देशव्यापी जनजागरण कार्यक्रम है इसलिए सत्तारूढ़ पार्टी को परास्त करने के लिए ध्यान इस पर होना चाहिए था कि इस यात्रा का अधिकतम राजनीतिक लाभ कैसे उठाया जाए?
 इसमें सर्वप्रमुख नीति यही होनी चाहिए कि इसे सबसे ज्यादा प्रचार मिले और सारी चर्चा को इस पर केंद्रित रखा जाता, लेकिन इसके लिए पार्टी में शीर्ष से लेकर नीचे तक एकजुटता जरूरी है जिसका फिलहाल अभाव दिख रहा है। कुछ वर्ष पूर्व आडवाणी की यात्राओं के दौरान पूरी पार्टी एक साथ दिखती थी और देश का पूरा ध्यान इस ओर खींचने की रणनीति होती थी। इस बार भी हालांकि सिताबदियारा से आरंभ यात्रा में भाजपा के कई प्रमुख केंद्रीय नेता इसमें शामिल हुए पर सच यह है कि आज पार्टी के अंदर मुख्य ध्यान और चर्चा आडवाणी की यात्रा नहीं है।
भारतीय जनता पार्टी और विवादों का चोली-दामन का साथ है।ये यात्रा में भी दिखाई पडा।येद्दयुरप्पा की गिरफ्तारी जैसी घटनाएं उनकी यात्रा की आभा ही मलिन नहीं कर रहे हैं, बल्कि पार्टी के दूसरे नेताओं के बयानों और कार्यक्रमों से भी इसकी महत्ता घट रही है।
 यात्रा आरंभ होने के पूर्व सितंबर महीने के उत्तरार्ध में मुख्य चर्चा गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का उपवास रही। पार्टी की दुर्दशा यह रही कि दिल्ली में आयोजित राष्ट्रीय कार्यकारिणी में भी आडवाणी की यात्रा मुख्य विषय नहीं बनी। वहां अनुपस्थित रहकर नरेंद्र मोदी ही लोगों की अभिरुचि का विषय बने। उसके बाद मोदी के दस वर्षीय कार्यकाल की उपलब्धियां आ गईं।ठीक यात्रा के दिन मोदी का ब्लॉग आ गया आडवाणी की प्रशंसा एवं यात्रा के समर्थन में। यह स्थिति केवल मोदी तक सीमित नहीं। अध्यक्ष नितिन गडकरी ने कार्यकारिणी के ठीक पहले पत्रकार सम्मेलन में जनचेतना यात्रा का विवरण देकर यह संदेश देने की कोशिश की कि यह पार्टी द्वारा निर्धारित शीर्ष नेतृत्व का निर्णय है। इसमें भी इसे मुख्य फोकस बनाने की रणनीति ओझल थी।
 इसके अलावा उत्तर प्रदेश में आडवाणी की यात्रा का सघन कार्यक्रम होना चाहिए था पर वाराणसी से उनकी यात्रा मध्य प्रदेश मोड़ दी गई। उनके समानांतर उत्तर प्रदेश में राजनाथ सिंह एवं कलराज मिश्र के नेतृत्व में दो अलग यात्राएं चल रहीं हैं। इसके पीछे तर्क है कि प्रदेश चुनाव के कारण ये यात्राएं आवश्यक थीं, क्योंकि यदि चुनाव आयोग ने फरवरी में चुनाव घोषित कर दिया तो यह कार्यक्रम संभव नहीं हो पाता। क्या आडवाणी की यात्रा को केंद्र एवं प्रदेश सरकार के खिलाफ नहीं किया जा सकता था? इससे आम नागरिकों और भाजपा कार्यकर्ताओं में गलत संदेश गया। साफ है कि उत्तर प्रदेश में आडवाणी की यात्रा को पर्याप्त महत्व नहीं दिया गया और यह लोगों की दृष्टि से छिपी नहीं है। अपने ही राजनीतिक लाभ को पर्याप्त महत्व न देने की ऐसी कोशिशों को किस नजर से देखा जाए? गडकरी द्वारा यात्रा का पूरा विवरण देते समय ही साफ हो गया था कि आडवाणी भले इसे काफी महत्व दे रहे हों, लेकिन पार्टी नेतृत्व केवल औपचारिकता पूरा कर रही है।
सच यह है कि घोषणा करने के पूर्व आडवाणी अपने साथियों से इस पर चर्चा कर चुके थे, लेकिन जब नेताओं का मुख्य फोकस अपना पद, अपना कद और अपनी अहमियत बनाए रखना हो तो फिर ऐसे किसी कार्यक्रम के लिए आवश्यक एकजुटता कहां से आती। यात्रा के लिए उपयुक्त माहौल बनाने की राष्ट्रीय कोशिशें बिल्कुल नदारद हैं। ऐसे में यात्रा के अपेक्षित फलितार्थ को हासिल करने की उम्मीद कैसे की जा सकती है? निश्चित ही यह कोई अच्छी बात नहीं कही जा सकती।


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