अक्सर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृहमत्रीं प्रणवमुखर्जी कहते है कि भारतीय अर्थव्यस्था का आधारभूत ढाँचा बहुत मजबूत है। आखिर कौन सा आधार ढाँचा है ? कमजोर होता रुपया, घटता विदेशी निवेश, लगातार बढ़ती महगाँई , ऊँची व्याज दर या चालू खाते का घाटा। क्यो कि यही सब लक्षण है हमारी अर्थव्यवस्था के?
बात करें कृषि की, तो आज भी किसान अच्छी फसल के लिए मानसून के समय पर आने की दुआ करते हैं। स्वतन्त्रता के 64 साल बाद भी हम किसानों का ख्याल नहीं रख पाये है। ना तो उनकी फसल का सही दाम मिल पा रहा है और ना ही बीज, सिंचाई उर्वरक जैसी बुनियादी सुविधायें। तभी तो कृषि घाटे का सौदा बनकर रह गयी है। हाल में आलू की बम्पर पैदावार ने सरकारों की लापरवाही फिर उजागर किया। जहाँ एकतरफ केरल में आलू 15-20 रुपये बिक रहा था तो हरियाणा, पंजाब,पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आलू कौडी के मोल बिक रहे था।
औद्योगिक क्षेत्र पर नज़र डाले तो कमजोर अवसंरचना ने इसे आकार नहीं लेने दिया। भ्रष्टाचार और बढ़ती व्याज दरों ने इसके विकास की सम्भावना को भी घटाया है। कुछ राज्य सरकारों की बेपरवाही ने कई औद्योगिक क्षेत्रों की पहचान ही नष्ट कर दी भागलपुर, कानपुर इसके उदाहरण हैं।
हाँ हमने सेवाक्षेत्र में प्रगति की है लेकिन वो भी कुछ शहरों तक सिमट कर रह गया है। विदेशों पर अधिक निर्भरता ने इसे और प्रभावित किया है जैसे इन्फोसिस का 65% कारोबार केवल अमेरिका पर निर्भर करता है। तभी तो अमेरिका और यूरोपीय देशों में आयी मंदी ने सेवा क्षेत्र की तेजी को कुंद किया है।
एक बार हम मान भी लें कि सेवा क्षेत्र बहुत मजबूत है, लेकिन क्या 121 करोड़ की आबादी वाली अर्थव्यवस्था का इंजन बन सकता है? जबाब नहीं में ही आयेगा। तो फिर क्यो नहीं हमारी सरकार कृषि और उद्योग को ध्यान में रख कर दीर्घकालिक रणनीति बनाती। इसी से सबसे ज्यादा रोजगार भी मिल सकता है।
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