रविवार, 1 जनवरी 2012

कुछ खास मायने में 2011


 भ्रष्टाचार भारत का मूलस्वभाव नहीं है। 2011 के जनलोकपाल आन्दोलन ने यह चरितार्थ कर दिखाया। सफलता असफलता से हट कर इस आन्दोलन की सार्थकता यह रही कि इसने ब्यापक जनजागरुकता लायी। इस सन्दर्भ में 2011 नि:संदेह एक ऐतिहासिक साल माना जाएगा।
 2010 में भारत में हुए घोटालों 2 जी , आदर्श सोसायटी इत्यादि ने जनता को निराश किया था। विधायी संस्थाओं के अनेक माननीय सदस्य भी भ्रष्टाचार की जद में आए। राजनीति और प्रशासनतंत्र ने साझा लूट की।अब बारी जनता की थी।
 भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम समानांतर चले। अन्ना हजारे ने जनलोकपाल का मुद्दा उठाया। उन्होंने 5 अप्रैल को जंतर-मंतर पर अनशन शुरू किया। उन्होंने जनलोकपाल के लिए नागरिक समाज व सरकार के प्रतिनिधियों की संयुक्त समिति की मांग की। आंदोलन को व्यापक समर्थन मिला।
 ईमानदार लोकतांत्रिक राजव्यवस्था बेशक एक सपना है, लेकिन भारत की जनता को ऐसा सपना देखने का अधिकार है।। केंद्र सरकार ने भ्रष्टाचार को संस्थागत बनाया, भ्रष्टाचार विरोधी जनआंदोलन को बदनाम और बेइज्जत करने के सारे हथकंडे अपनाए गए। सत्ता को उम्मीद थी कि वह अपनी ताकत के दम पर भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम कुचल देगी। उसने जून में योगगुरु रामदेव व उनके समर्थकों पर क्रूर पुलिसिया कार्रवाई की। कोर्ट ने पुलिस कार्रवाई का स्वत: संज्ञान लिया। सरकारी उत्पीड़न से देश का हरेक नागरिक क्षुब्ध हुआ। सरकार ने अन्ना हजारे के विरुद्ध भी पुलिस कार्रवाई की, लेकिन सरकार गच्चा खा गई। पहले उन्हें जेल भेजा, फिर छोड़ा। पहले उन्हें अपशब्द कहे, फिर सम्मानित बुजुर्ग बताया। संप्रति मुंबई में कम भीड़ जुटने को लेकर सरकार उत्साहित है, लेकिन ऐसे राष्ट्रव्यापी आंदोलनों में जुटी भीड़ या मांगों के न माने जाने का अर्थ विफलता नहीं होता।
 असल बात है राष्ट्र का जागरण। राजनीतिक दलतंत्र में कंपकपी है। ढेर सारे गैर-राजनीतिक संगठन और युवा भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में सक्रिय हैं। जुलूसों व प्रदर्शनों से दूर रहने वाले मध्यवर्गीय युवा भी भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का हिस्सा बने हैं। भ्रष्टाचार का खात्मा राष्ट्रीय चिंता और बेचैनी बना है। भारत का मन आशावादी हुआ है। बेशक घपलों, घोटालों की बाढ़ है, गरीबों का खाद्यान्न लुट रहा है, लेकिन भ्रष्टाचार से सीधी लड़ाई की मुहिम लगातार तेज हुई है। इस साल उसे हर गली-चौराहे पर ललकारा गया है।
 भविष्य में शुभ की संभावना ही आशावाद का मुख्य तत्व है। गहन निराशा का उत्साहपूर्ण आशा में बदलना राष्ट्र के लिए स्फूर्तिदायी है। भ्रष्टाचार अब जीवंत मुद्दा है। भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेदार केंद्र भी भ्रष्टाचार से लड़ाई की नारेबाजी कर रहा है। राष्ट्रव्यापी इस महासंग्राम ने कमाल किया है। लाखों-करोड़ों के आंदोलन के बावजूद कहीं कोई हिंसा नहीं हुई। राष्ट्र में खास किस्म का जनजागरण हुआ है। पारदर्शी व्यवस्था की उम्मीदें बढ़ी हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें