मंगलवार, 31 जनवरी 2012

सिद्धांतहीन राजनीति मौत के फंदे के समान है......



  विवेकानंद और गांधीजी ने जीवन की नई दिशा दी। वे एक ऐसे भारत का निर्माण करना चाहते थे जो दुनिया को सहिष्णुता और विनम्रता का पाठ पढ़ा सके। विवेकानंद के लिए भारत में धर्म मूलभूत शक्ति थी। उन्होंने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति की तरह प्रत्येक राष्ट्र के पास जीवन की एक धुन होती है, जो उसके केंद्र में होती है। यदि कोई देश इसे अपनी राष्ट्रीय चेतना से बाहर करने की कोशिश करता है तो वह देश नष्ट हो जाता है। पूरे देश में अपने व्यापक भ्रमण और कन्याकुमारी में तीन दिनों के गहन ध्यान के बाद विवेकानंद ने 25 दिसंबर 1892 को जो सबसे पहले टिप्पणी की वह इस प्रकार थी-धर्म राष्ट्र के शरीर का रक्त है। हमारी सभी बड़ी बीमारियों का कारण इस रक्त की अशुद्धता है। यह देश फिर से उभर सकता है यदि इस रक्त को शुद्ध कर दिया जाए। विवेकानंद ने शुद्ध हिंदुत्व को मानव सेवा से जोड़ते हुए कहा-जीव ही शिव है। उन्होंने अपने ही वर्ग से यह सवाल किया कि हमने क्या किया है? हम संन्यासियों यानी ईश्वर के तथाकथित संदेशवाहकों ने साधारण जनता के लिए आखिर किया ही क्या है? गांधीजी ने भी इसी दर्शन को स्वीकार किया और दरिद्र नारायण के रूप में अपना एक अलग विचार विकसित किया। विवेकानंद की तरह उन्होंने भी ईश्वर की सेवा को मानव सेवा से जोड़ा।
 विवेकानंद एक संन्यासी थे और राजनीति से पूरी तरह दूर रहते थे, लेकिन उन्होंने गांधीजी के लिए यह आधार तैयार किया कि वह राजनीति को धर्म से अलग करने के सुझाव को अस्वीकृत कर दें, क्योंकि उन्होंने लोगों की आजीवन सेवा के माध्यम से सत्य की तलाश के रूप में धर्म को एक नई परिभाषा दी। यह विवेकानंद के विचारों का ही प्रभाव था कि गांधीजी यह कहने में समर्थ रहे कि जो लोग यह कहते हैं कि धर्म का राजनीति से कुछ लेना-देना नहीं है वे यही नहीं जानते हैं कि धर्म का असली अर्थ क्या है? गांधीजी ने यह भी कहा कि मेरे अंदर के राजनेता को मैं कभी भी अपने निर्णयों पर हावी होने का मौका नहीं देता हूँ। यदि मैं राजनीति में भाग लेता नजर आ रहा हूँ तो सिर्फ इसलिए, क्योंकि आज राजनीति ने सांप की कुंडली की तरह हमें जकड़ लिया है, जिससे कोई कितनी भी कोशिश कर ले, बचकर नहीं निकल सकता। इसीलिए मैं इस सांप से लड़ना चाहता हूं। उन्होंने यह भी महसूस किया कि इस सांप से लड़ने का सबसे अच्छा तरीका है वास्तविक धर्म के उच्च आदर्शो को विकसित करना। बार-बार गांधीजी ने यह रेखांकित किया कि सिद्धांतहीन राजनीति मौत के फंदे के समान है, जो राष्ट्र की आत्मा को ही मार डालती है। 

बुधवार, 11 जनवरी 2012

भारतीय अर्थव्यवस्था के अनसुलझे रहस्य



अक्सर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृहमत्रीं प्रणवमुखर्जी कहते है कि भारतीय अर्थव्यस्था का आधारभूत ढाँचा बहुत मजबूत है। आखिर कौन सा आधार ढाँचा है ? कमजोर होता रुपया, घटता विदेशी निवेश, लगातार बढ़ती महगाँई , ऊँची व्याज दर या चालू खाते का घाटा। क्यो कि यही सब लक्षण है हमारी अर्थव्यवस्था के?
 बात करें कृषि की, तो आज भी किसान अच्छी फसल के लिए मानसून के समय पर आने की दुआ करते हैं। स्वतन्त्रता के 64 साल बाद भी हम किसानों का ख्याल नहीं रख पाये है। ना तो उनकी फसल का सही दाम मिल पा रहा है और ना ही बीज, सिंचाई उर्वरक जैसी बुनियादी सुविधायें। तभी तो कृषि घाटे का सौदा बनकर रह गयी है। हाल में आलू की बम्पर पैदावार  ने सरकारों की लापरवाही फिर उजागर किया। जहाँ एकतरफ केरल में आलू 15-20 रुपये बिक रहा था तो हरियाणा, पंजाब,पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आलू कौडी के मोल बिक रहे था।
 औद्योगिक क्षेत्र पर नज़र डाले तो कमजोर अवसंरचना ने इसे आकार नहीं लेने दिया। भ्रष्टाचार और बढ़ती व्याज दरों ने इसके विकास की सम्भावना को भी घटाया है। कुछ राज्य सरकारों की बेपरवाही ने कई औद्योगिक क्षेत्रों की पहचान ही नष्ट कर दी भागलपुर, कानपुर इसके उदाहरण हैं।
 हाँ हमने सेवाक्षेत्र में प्रगति की है लेकिन वो भी कुछ शहरों तक सिमट कर रह गया है। विदेशों पर अधिक निर्भरता ने इसे और प्रभावित किया है जैसे इन्फोसिस का 65% कारोबार केवल अमेरिका पर निर्भर करता है। तभी तो अमेरिका और यूरोपीय देशों में आयी मंदी ने सेवा क्षेत्र की तेजी को कुंद किया है।
 एक बार हम मान भी लें कि सेवा क्षेत्र बहुत मजबत है, लेकिन क्या 121 करोड़ की आबादी वाली अर्थव्यवस्था का इंजन बन सकता है? जबाब नहीं में ही आयेगा। तो फिर क्यो नहीं हमारी सरकार कृषि और उद्योग को ध्यान में रख कर दीर्घकालिक रणनीति बनाती। इसी से सबसे ज्यादा रोजगार भी मिल सकता है।

भारतीय अर्थव्यवस्था के अनसुलझे रहस्य



अक्सर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृहमत्रीं प्रणवमुखर्जी कहते है कि भारतीय अर्थव्यस्था का आधारभूत ढाँचा बहुत मजबूत है। आखिर कौन सा आधार ढाँचा है ? कमजोर होता रुपया, घटता विदेशी निवेश, लगातार बढ़ती महगाँई , ऊँची व्याज दर या चालू खाते का घाटा। क्यो कि यही सब लक्षण है हमारी अर्थव्यवस्था के?
 बात करें कृषि की, तो आज भी किसान अच्छी फसल के लिए मानसून के समय पर आने की दुआ करते हैं। स्वतन्त्रता के 64 साल बाद भी हम किसानों का ख्याल नहीं रख पाये है। ना तो उनकी फसल का सही दाम मिल पा रहा है और ना ही बीज, सिंचाई उर्वरक जैसी बुनियादी सुविधायें। तभी तो कृषि घाटे का सौदा बनकर रह गयी है। हाल में आलू की बम्पर पैदावार  ने सरकारों की लापरवाही फिर उजागर किया। जहाँ एकतरफ केरल में आलू 15-20 रुपये बिक रहा था तो हरियाणा, पंजाब,पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आलू कौडी के मोल बिक रहे था।
 औद्योगिक क्षेत्र पर नज़र डाले तो कमजोर अवसंरचना ने इसे आकार नहीं लेने दिया। भ्रष्टाचार और बढ़ती व्याज दरों ने इसके विकास की सम्भावना को भी घटाया है। कुछ राज्य सरकारों की बेपरवाही ने कई औद्योगिक क्षेत्रों की पहचान ही नष्ट कर दी भागलपुर, कानपुर इसके उदाहरण हैं।
 हाँ हमने सेवाक्षेत्र में प्रगति की है लेकिन वो भी कुछ शहरों तक सिमट कर रह गया है। विदेशों पर अधिक निर्भरता ने इसे और प्रभावित किया है जैसे इन्फोसिस का 65% कारोबार केवल अमेरिका पर निर्भर करता है। तभी तो अमेरिका और यूरोपीय देशों में आयी मंदी ने सेवा क्षेत्र की तेजी को कुंद किया है।
 एक बार हम मान भी लें कि सेवा क्षेत्र बहुत मजबत है, लेकिन क्या 121 करोड़ की आबादी वाली अर्थव्यवस्था का इंजन बन सकता है? जबाब नहीं में ही आयेगा। तो फिर क्यो नहीं हमारी सरकार कृषि और उद्योग को ध्यान में रख कर दीर्घकालिक रणनीति बनाती। इसी से सबसे ज्यादा रोजगार भी मिल सकता है।

भारतीय अर्थव्यवस्था के अनसुलझे रहस्य



अक्सर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृहमत्रीं प्रणवमुखर्जी कहते है कि भारतीय अर्थव्यस्था का आधारभूत ढाँचा बहुत मजबूत है। आखिर कौन सा आधार ढाँचा है ? कमजोर होता रुपया, घटता विदेशी निवेश, लगातार बढ़ती महगाँई , ऊँची व्याज दर या चालू खाते का घाटा। क्यो कि यही सब लक्षण है हमारी अर्थव्यवस्था के?
 बात करें कृषि की, तो आज भी किसान अच्छी फसल के लिए मानसून के समय पर आने की दुआ करते हैं। स्वतन्त्रता के 64 साल बाद भी हम किसानों का ख्याल नहीं रख पाये है। ना तो उनकी फसल का सही दाम मिल पा रहा है और ना ही बीज, सिंचाई उर्वरक जैसी बुनियादी सुविधायें। तभी तो कृषि घाटे का सौदा बनकर रह गयी है। हाल में आलू की बम्पर पैदावार  ने सरकारों की लापरवाही फिर उजागर किया। जहाँ एकतरफ केरल में आलू 15-20 रुपये बिक रहा था तो हरियाणा, पंजाब,पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आलू कौडी के मोल बिक रहे था।
 औद्योगिक क्षेत्र पर नज़र डाले तो कमजोर अवसंरचना ने इसे आकार नहीं लेने दिया। भ्रष्टाचार और बढ़ती व्याज दरों ने इसके विकास की सम्भावना को भी घटाया है। कुछ राज्य सरकारों की बेपरवाही ने कई औद्योगिक क्षेत्रों की पहचान ही नष्ट कर दी भागलपुर, कानपुर इसके उदाहरण हैं।
 हाँ हमने सेवाक्षेत्र में प्रगति की है लेकिन वो भी कुछ शहरों तक सिमट कर रह गया है। विदेशों पर अधिक निर्भरता ने इसे और प्रभावित किया है जैसे इन्फोसिस का 65% कारोबार केवल अमेरिका पर निर्भर करता है। तभी तो अमेरिका और यूरोपीय देशों में आयी मंदी ने सेवा क्षेत्र की तेजी को कुंद किया है।
 एक बार हम मान भी लें कि सेवा क्षेत्र बहुत मजबत है, लेकिन क्या 121 करोड़ की आबादी वाली अर्थव्यवस्था का इंजन बन सकता है? जबाब नहीं में ही आयेगा। तो फिर क्यो नहीं हमारी सरकार कृषि और उद्योग को ध्यान में रख कर दीर्घकालिक रणनीति बनाती। इसी से सबसे ज्यादा रोजगार भी मिल सकता है।

भारतीय अर्थव्यवस्था के अनसुलझे रहस्य


अक्सर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृहमत्रीं प्रणवमुखर्जी कहते है कि भारतीय अर्थव्यस्था का आधारभूत ढाँचा बहुत मजबूत है। आखिर कौन सा आधार ढाँचा है ? कमजोर होता रुपया, घटता विदेशी निवेश, लगातार बढ़ती महगाँई , ऊँची व्याज दर या चालू खाते का घाटा। क्यो कि यही सब लक्षण है हमारी अर्थव्यवस्था के?
 बात करें कृषि की, तो आज भी किसान अच्छी फसल के लिए मानसून के समय पर आने की दुआ करते हैं। स्वतन्त्रता के 64 साल बाद भी हम किसानों का ख्याल नहीं रख पाये है। ना तो उनकी फसल का सही दाम मिल पा रहा है और ना ही बीज, सिंचाई उर्वरक जैसी बुनियादी सुविधायें। तभी तो कृषि घाटे का सौदा बनकर रह गयी है। हाल में आलू की बम्पर पैदावार  ने सरकारों की लापरवाही फिर उजागर किया। जहाँ एकतरफ केरल में आलू 15-20 रुपये बिक रहा था तो हरियाणा, पंजाब,पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आलू कौडी के मोल बिक रहे था।
 औद्योगिक क्षेत्र पर नज़र डाले तो कमजोर अवसंरचना ने इसे आकार नहीं लेने दिया। भ्रष्टाचार और बढ़ती व्याज दरों ने इसके विकास की सम्भावना को भी घटाया है। कुछ राज्य सरकारों की बेपरवाही ने कई औद्योगिक क्षेत्रों की पहचान ही नष्ट कर दी भागलपुर, कानपुर इसके उदाहरण हैं।
 हाँ हमने सेवाक्षेत्र में प्रगति की है लेकिन वो भी कुछ शहरों तक सिमट कर रह गया है। विदेशों पर अधिक निर्भरता ने इसे और प्रभावित किया है जैसे इन्फोसिस का 65% कारोबार केवल अमेरिका पर निर्भर करता है। तभी तो अमेरिका और यूरोपीय देशों में आयी मंदी ने सेवा क्षेत्र की तेजी को कुंद किया है।
 एक बार हम मान भी लें कि सेवा क्षेत्र बहुत मजबत है, लेकिन क्या 121 करोड़ की आबादी वाली अर्थव्यवस्था का इंजन बन सकता है? जबाब नहीं में ही आयेगा। तो फिर क्यो नहीं हमारी सरकार कृषि और उद्योग को ध्यान में रख कर दीर्घकालिक रणनीति बनाती। इसी से सबसे ज्यादा रोजगार भी मिल सकता है।

रविवार, 1 जनवरी 2012

कुछ खास मायने में 2011


 भ्रष्टाचार भारत का मूलस्वभाव नहीं है। 2011 के जनलोकपाल आन्दोलन ने यह चरितार्थ कर दिखाया। सफलता असफलता से हट कर इस आन्दोलन की सार्थकता यह रही कि इसने ब्यापक जनजागरुकता लायी। इस सन्दर्भ में 2011 नि:संदेह एक ऐतिहासिक साल माना जाएगा।
 2010 में भारत में हुए घोटालों 2 जी , आदर्श सोसायटी इत्यादि ने जनता को निराश किया था। विधायी संस्थाओं के अनेक माननीय सदस्य भी भ्रष्टाचार की जद में आए। राजनीति और प्रशासनतंत्र ने साझा लूट की।अब बारी जनता की थी।
 भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम समानांतर चले। अन्ना हजारे ने जनलोकपाल का मुद्दा उठाया। उन्होंने 5 अप्रैल को जंतर-मंतर पर अनशन शुरू किया। उन्होंने जनलोकपाल के लिए नागरिक समाज व सरकार के प्रतिनिधियों की संयुक्त समिति की मांग की। आंदोलन को व्यापक समर्थन मिला।
 ईमानदार लोकतांत्रिक राजव्यवस्था बेशक एक सपना है, लेकिन भारत की जनता को ऐसा सपना देखने का अधिकार है।। केंद्र सरकार ने भ्रष्टाचार को संस्थागत बनाया, भ्रष्टाचार विरोधी जनआंदोलन को बदनाम और बेइज्जत करने के सारे हथकंडे अपनाए गए। सत्ता को उम्मीद थी कि वह अपनी ताकत के दम पर भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम कुचल देगी। उसने जून में योगगुरु रामदेव व उनके समर्थकों पर क्रूर पुलिसिया कार्रवाई की। कोर्ट ने पुलिस कार्रवाई का स्वत: संज्ञान लिया। सरकारी उत्पीड़न से देश का हरेक नागरिक क्षुब्ध हुआ। सरकार ने अन्ना हजारे के विरुद्ध भी पुलिस कार्रवाई की, लेकिन सरकार गच्चा खा गई। पहले उन्हें जेल भेजा, फिर छोड़ा। पहले उन्हें अपशब्द कहे, फिर सम्मानित बुजुर्ग बताया। संप्रति मुंबई में कम भीड़ जुटने को लेकर सरकार उत्साहित है, लेकिन ऐसे राष्ट्रव्यापी आंदोलनों में जुटी भीड़ या मांगों के न माने जाने का अर्थ विफलता नहीं होता।
 असल बात है राष्ट्र का जागरण। राजनीतिक दलतंत्र में कंपकपी है। ढेर सारे गैर-राजनीतिक संगठन और युवा भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में सक्रिय हैं। जुलूसों व प्रदर्शनों से दूर रहने वाले मध्यवर्गीय युवा भी भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का हिस्सा बने हैं। भ्रष्टाचार का खात्मा राष्ट्रीय चिंता और बेचैनी बना है। भारत का मन आशावादी हुआ है। बेशक घपलों, घोटालों की बाढ़ है, गरीबों का खाद्यान्न लुट रहा है, लेकिन भ्रष्टाचार से सीधी लड़ाई की मुहिम लगातार तेज हुई है। इस साल उसे हर गली-चौराहे पर ललकारा गया है।
 भविष्य में शुभ की संभावना ही आशावाद का मुख्य तत्व है। गहन निराशा का उत्साहपूर्ण आशा में बदलना राष्ट्र के लिए स्फूर्तिदायी है। भ्रष्टाचार अब जीवंत मुद्दा है। भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेदार केंद्र भी भ्रष्टाचार से लड़ाई की नारेबाजी कर रहा है। राष्ट्रव्यापी इस महासंग्राम ने कमाल किया है। लाखों-करोड़ों के आंदोलन के बावजूद कहीं कोई हिंसा नहीं हुई। राष्ट्र में खास किस्म का जनजागरण हुआ है। पारदर्शी व्यवस्था की उम्मीदें बढ़ी हैं।