वैसे चारों ओर शोर
है। चाइनीज ग्रीटिग्सं कार्ड्स और गिफ्ट से बाजार पटे हैं। पिछले सप्ताह आक्रोशित
युवा डीजे की धुन पर ताल दे रहे है। कन्फुज और लोभी मीडिया 2012 को विदा कर रहा
है। कोई इसे जागरुकता का वर्ष कह रहा है तो कई इसे लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में
दक्षिण पंथ के उदय का साल। कुछ लोग इसे वैश्विक स्तर पर चीन से लेकर रुस, जापान से
लेकर इटली तक नेतृत्व परिवर्तन का वर्ष कह रहे है। सबके अपने अपने तर्क और तथ्य
हैं।
अगर भारत के
दृष्टिकोण से देंखें तो यह वर्ष मिला जुला रहा।एक राष्ट्र के रुप में जहाँ हमने
इसरो के एक सौवें मिशन की नयी उपलब्धि हासिल की वहीं भ्रष्टाचार को हल करने में
फिसड्डी। हैदराबाद में जैव विविधता की मेजबानी कर विश्व को नये संकल्पो का संदेश
तो दिया लेकिन गंगा और यमुना जैसी नदियों के सन्दर्भ मे केवल कागजी बातें ही की
गयी।
एक ओर संसद में
प्रोन्नति में आरक्षण मामले पर गहमा गहमी रहीं, तो दुसरी ओर तमिलनाडु में कई
दलितों के घर जलाये गये। विदर्भ, बुन्देलखण्ड जैसे इलाके अन्नदाताओ के लिए अभी भी
कब्रगाह बने हुए है।उत्तराखण्ड में जहाँ बादले फटने से कइयो ने अपनी जानें गवायी।
वहीं असम में बाढ़ से हजारों लोगों ने अपना सब कुछ खो दिया।
उत्तर प्रदेश में
सत्ता परिवर्तन के साथ इस वर्ष नौ दंगें हुए तो असम में चुनाव के बाद कोकराझार
जैसे इलाके साम्प्रदायिकता के चपेट में आये। इनका प्रभाव वेब दुनिया से लेकर सारे
भारत पर पड़ा। जम्मुकश्मीर में जहाँ पंचायत अध्यक्षो को सुरक्षा देने में सरकार
असफल रही तो मुम्बई में बाल ठाकरे की मृत्यु पर शासन ने बेइन्तहा सुरक्षा इन्तजाम
किये।
क्रिकेट मे बाहर से
पिटने के बाद हम घर में भी हारे।सचिन का तेइस वर्षीय लम्बा एकदिवसीय कैरियर समाप्त
हो गया। तो पोटिंग, लक्ष्मण, द्रविण के टेस्ट सन्यास ने विश्व क्रिकेट के एक और
सुनहरे दौर को इतिहास के पन्नो पर अंकित होते देखा। ओलम्पिक 2012 में पदक के साथ हमारी उम्मीदें भी
बढीं । लेकिन हाकी ने निराश ही किया है।
साल भर महगाई ने आम
आदमी का जीना दुभर किया है। वहीं भारत एक्सयूवी का बढ़ा बाजार बनकर उभरा है।अब
प्रशन है कि नेटोक्रेसी के दौर में सरकार से क्या इम्मीद की जाय। लेकिन अन्धेरा
छटेगाँ।उजाला होगा। ठंड और भुखमरी से मौतों का सिलसिला भी रुकेगा।इसी इम्मीच के
साथ नये वर्ष 2013 का स्वागत करें।