शनिवार, 29 दिसंबर 2012

किसका नववर्ष कौन सा नया साल

वैसे चारों ओर शोर है। चाइनीज ग्रीटिग्सं कार्ड्स और गिफ्ट से बाजार पटे हैं। पिछले सप्ताह आक्रोशित युवा डीजे की धुन पर ताल दे रहे है। कन्फुज और लोभी मीडिया 2012 को विदा कर रहा है। कोई इसे जागरुकता का वर्ष कह रहा है तो कई इसे लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में दक्षिण पंथ के उदय का साल। कुछ लोग इसे वैश्विक स्तर पर चीन से लेकर रुस, जापान से लेकर इटली तक नेतृत्व परिवर्तन का वर्ष कह रहे है। सबके अपने अपने तर्क और तथ्य हैं।
अगर भारत के दृष्टिकोण से देंखें तो यह वर्ष मिला जुला रहा।एक राष्ट्र के रुप में जहाँ हमने इसरो के एक सौवें मिशन की नयी उपलब्धि हासिल की वहीं भ्रष्टाचार को हल करने में फिसड्डी। हैदराबाद में जैव विविधता की मेजबानी कर विश्व को नये संकल्पो का संदेश तो दिया लेकिन गंगा और यमुना जैसी नदियों के सन्दर्भ मे केवल कागजी बातें ही की गयी।
एक ओर संसद में प्रोन्नति में आरक्षण मामले पर गहमा गहमी रहीं, तो दुसरी ओर तमिलनाडु में कई दलितों के घर जलाये गये। विदर्भ, बुन्देलखण्ड जैसे इलाके अन्नदाताओ के लिए अभी भी कब्रगाह बने हुए है।उत्तराखण्ड में जहाँ बादले फटने से कइयो ने अपनी जानें गवायी। वहीं असम में बाढ़ से हजारों लोगों ने अपना सब कुछ खो दिया।
उत्तर प्रदेश में सत्ता परिवर्तन के साथ इस वर्ष नौ दंगें हुए तो असम में चुनाव के बाद कोकराझार जैसे इलाके साम्प्रदायिकता के चपेट में आये। इनका प्रभाव वेब दुनिया से लेकर सारे भारत पर पड़ा। जम्मुकश्मीर में जहाँ पंचायत अध्यक्षो को सुरक्षा देने में सरकार असफल रही तो मुम्बई में बाल ठाकरे की मृत्यु पर शासन ने बेइन्तहा सुरक्षा इन्तजाम किये।
क्रिकेट मे बाहर से पिटने के बाद हम घर में भी हारे।सचिन का तेइस वर्षीय लम्बा एकदिवसीय कैरियर समाप्त हो गया। तो पोटिंग, लक्ष्मण, द्रविण के टेस्ट सन्यास ने विश्व क्रिकेट के एक और सुनहरे दौर को इतिहास के पन्नो पर अंकित होते देखा। ओलम्पिक 2012 में पदक के साथ हमारी उम्मीदें भी बढीं । लेकिन हाकी ने निराश ही किया है।
साल भर महगाई ने आम आदमी का जीना दुभर किया है। वहीं भारत एक्सयूवी का बढ़ा बाजार बनकर उभरा है।अब प्रशन है कि नेटोक्रेसी के दौर में सरकार से क्या इम्मीद की जाय। लेकिन अन्धेरा छटेगाँ।उजाला होगा। ठंड और भुखमरी से मौतों का सिलसिला भी रुकेगा।इसी इम्मीच के साथ नये वर्ष 2013 का स्वागत करें।  


चारित्रिक दोष के युग में ,पाक साफ पत्रकार

सामाजिक असन्तोष अपने आकार को बढ़ा रहे है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि अपने जिम्मेदारी का वहन कौन कर रहा है। जहाँ बढ़ते नगरीकरण ने सामाजिक तोन बाने को नया रुप दिया है। वही एकल परिवार की बढ़ती संख्या ने पारिवारिक सुरक्षा की भावना को घटाया है।याद रखें हम सभ्यता के संक्रमणकालीन दौर में है।ना तो हम जड़ो से पुरी तरह अलग हो पाये है ना तो पुरी तरह से आधुनिक। यही कारण है कि हमारे यहाँ पिज्जा की डिलवरी तो टाइम पर हो जाती है लेकिन ऐम्बुलेन्स और पुलिस घटाना के बाद ही पहुचते हैं।
अगर आप समस्या देखें तो हर ओर नज़र आयेगी।किसान से लेकर प्रधानमंत्री तक। हमने लोकतन्त्र को अपनाया लेकिन सही तरीके से लागु ना कर पाये। ज्यादातर लोग अपने काम के बजाय दुसरे लोगों के काम को करना ज्यादा पसन्द करते है। हरामखोरी के हम आदी होते जा रहे। प्राइमरी अध्यापक से लेकर प्रोफेसर तक पढ़ने के बजाय नेतागिरी में ज्यादा समय देते है। प्रतिष्ठा और महत्वाकाक्षां अच्छी बात है लेकिन जब ये समाज के हित मे ना हो तो नैतिक रुप से सही नही। यही हाल हमारे विधायिका का है, जिन्हें कानुन बनाने का दायित्व सौपा गया था। वो रोड बनाने और हैण्डपम्प लगवाने में ज्यादा रुचि लेते है। कार्यपालिका का कार्य कानून लागू करवाना था तो वह नेताओं के हाथों की कठकुतली बन कर रह गया है। यही कारण है कि जब सरकारे बदलती है तो वही कानून होने के बावजुद व्यवस्था की दशा और दिशा दोनों बदल जाती है।
न्याय के मन्दिर का कहना ही क्या। तीन करोड़ से ज्यादा मामले न्याय के लिए इन्तजार कर रहे है। आम आदमी अब जाये भी तो कहाँ जाय।बचा भी तो एक मीडियी। बिका हुआ। मालिको के हितो का संरक्षक।टीआरपी की अन्धी दौड़ में भटका। आज मध्यवर्गीय लोगों की स्थिति बीच सड़क पर भागते उस कुत्ते की तरह है जो एक गाड़ी से तो बच जाता है। लेकिन जैसे ही वह इसकी खुशी मना पाता की दुसरी आर की गाड़ी का धक्का ..।और सब खतम।
इन्जिनियर, ठेकेदार, आडिटर, व्यापारी इत्यादि लोग कमीशनबाजी में ऐसे खोगये है कि उन्हे एहसास ही नहीं है। भौतिकता की अन्धी दौड़ जारी है। लोग चमक में ऐसे खोये है कि नैतिकता की खिसकती ज़मीन का अन्दाज़ा ही नहीं है। पत्रकार,डाक्टर, सेना,साहित्यकार इसरो इत्यादि में काम कर रहे लोग हैं, जो शायद अपने काम को कुछ ईमानदारी से कर रहे है।हाँला कि कुछ बदमाश इन पेशे में भी है।आनुपातिक दृष्टि से कम है।  तभी हमारा देश अभी रहने लायक है। आवश्यक है कि समाज मे अपने काम को ईमानदारी से करने की प्रवृत्ति विकसित हो।