पीकू, एक लड़की ही क्यों
थी। वो अपने पिता (भाष्कोर बनर्जी) की ही देखभाल में अपने कैरियर और लाइफ की
सैक्रिफइसेस क्यों कर रही थी। कहतोहै ना फिल्में समाज का आइना होती है तो पीकू भी उसी समाज का आईना ही तो है। जिसमें एक ओर एक
लड़की अपने पिता के सारे नखरों को अपने जीवन का हकीकत मानते हुए स्विकार करती है।
यंग इण्डिया और शाइनिगं इण्डिया के नारों के बीच एक सीनियर सीटिजन पर फिल्म की
क्या जरुरत है। दरअसल हम जिस भारत में है वो दुविधाओं के जंजाल में उलझा हुआ है।
पुरुष, लड़के तो करियर के आड़ लेकर अपने जड़ो की
परवाह ना करते हुए आगे निकलते जा रहे है। पहले भी निकल रहे थे और आज भी। शायद आगे
भी ये सिलसिला जारी रहे। इसमें छुटते है तो अपने माँ बाप। वो संस्कार, वो घर बार
जिसे बनाने में माँ-बाप ने अपना सब कुछ लगाया होता है। कायदे से कहे तो हर स्थिति
में यही हो रहा है। मेरा अपना मानना है कि भारत में तीन लेयर में माइग्रेशन हो रहा
है। गाँव से छोटे शहर और कस्बो में और कस्बे व मझोले शहरो से मेट्रोस में मेट्रोस
से दुसरे देशों में। ये कोई न्यूटन का नियम नहीं है, इसलिए छोटे शहरों से सीधे लोग
विदेशों को भी जारहे। लब्बोलुआब ये है कि हमारे आज के भविष्य के निर्माता वहीं
अपने हाल पर छोड़ दिये जा रहे।
और इनकी संख्या भी भारत में दस करोड़ क्रास कर
चुकी है(जनगणना 2011के अनुसार। हम 2026 में 17 करोड़ पार कर जायेगें। ये वो लोग है
जिन्हे रिटायर कर दिया जाता है। इनके स्वास्थ्य को हमने बाजार के भरोसे कर रखा है।
बाजार जोकि स्वभाव में निर्मम और भाव शून्य हो उसके सहारे उनको छोड़ना कहाँ का
न्याय है जिन्हे भावनात्मक सम्बल की सबसे ज्यादा जरुरत हो। और एक जरुरी बात इसमें
से एक हिस्सा ऐसा भी है जिसने शाइनिगं इण्डिया को दूर से ही देखा है। जिसके लिए
दोजून की रोटी का जुगाड़ अभी भी सपने सच होने जैसा है। जो लालकिले से चन्द कदम दूर
माननीय प्रधानमन्त्री के स्वच्छता अभियान में अनचाहे रुप से योगदान देते हुए वो
बोतले उठीता है जिसे आज की युवा पीढ़ी चियर्स करके छोड़ देती है। जिनकी पेट की आग
गुरुद्वारे के लंगर से बुझती है और जो फुटपाथों पर रात बिताते है या शेल्टरों में।
इस वर्ग की समस्या ये है कि इसकी सेवा के लिए
स्किल मैनपावर नहीं है। पेंशन भी जनाखोरी का अभी भी शिकार है। लाख दावों के बावजूद
हमारी स्वास्थ्य सेवाये इन्हे नसीब नहीं होती। आज देश में 1200 से ज्यादा ओल्ड एज
होम है लेकिन एसके नियामक के लिए कोई संस्था नहीं। अकेले हैदराबाद में 200 से
ज्यादा है। कुछ तो तीसरे और चौथे तलों पर बेखौफ से इसलिए चलते है कि अगर कुछ हुआ
भी तो सलामी देकर कट लेगें। समाज के सहयोग से 80 से ज्यादा बुजुर्गों के लिए
ओल्डएजहोम चलाने वाले से जब मैने सरकार से सहायता लेने की बात की तो उस रिटायर्ड
व्युरोक्रेट ने हँसते हुए कहा ना हमें 20 प्रतिशत कमीशन नहीं देना। हमने जब लिया
नहीं तो दे क्यों।
अपनी जिम्मेदारी को मदर्स डे और फादर्स डे तक
समझने वाली युवा पीढ़ी को इनसे ज्यादा क्या मतलब। इन दो दिनों का महत्व तो गिफ्ट
के बाजार ने मिडिया में ऐजेण्डा सेट करके बनाया नहीं तो युवा पीढ़ी खोइ रहती
आइपीएल के गैल्मर और अपनी रंगीन दुनिया में। उसे क्या फर्क किसी भोष्कर के
काँस्टिपेशन और मोशन की थ्योरी में। वो तो आगे बढ़जाना चाहती है, उस मशीन के शेल
की परवाह किये बिना जिसके बिना ये पीढ़ी सुन भी नहीं सकती। खैर ये युवा पीढ़ी जाना
कहाँ चाहती है इसको लेकर वो खुद भी कन्फ्युज़ सी है। पुदीना और तुलसी की चाय इसे
पसन्द नहीं लेकिन यही चीज़े जब बाजार ब्राडिगं करके 130 में 10 पैकेट ग्रीन टी
बैग्स देता है तो हम शौक से चुस्की लेने को तैयार है। इसका ये मतलब नहीं कि बाजार
की सारी बाते निरर्थक है और बुजुर्ग व युवाओं के बीच चीन की दिवार।